Wednesday, 24 December 2008

स्कूल और छुट्टियों का चोली-दामन का साथ

...हाय रे...स्कूल की छुट्टियाँ!(हास्य-व्यंग्य!)



बचपन में जब हम स्कूल में पढ़ा करते थे... तब भी छुट्टियां हमें अच्छी नहीं लगती थी! आज भी अच्छी नहीं लगती!... एक बार पिताजी का तबादला एक छोटेसे गाँव में हुआ था!... पिताजी तो खैर! डॉक्टर थे!... अस्पताल में उनका आना-जाना लगा रहता था;.... लेकिन हम क्या करे?.... हमें तो पढने के लिए स्कूल जाना पड़ता था!...




स्कूल मजेदार था!...उसमें में उतनी ही सुविधाएँ थी; जितनी की छोटेसे गाँव के एक अदद स्कूल में होती है!... धूप की जब बहुतायत होती थी... हमारी क्लास एक घने बरगद के पेड़ के नीचे बैठाई जाती थी... जब ठंड का डंडा लहराता था तब टेंट में सिकुड़कर बैठने की भी सुविधा थी... लेकिन बारिश के मौसम में अक्सर हमें घर जाने के लिए धमकाया जाता था!




....धमकाया इसलिए जाता था, ...क्यों कि हम घर जाने के लिए राजी होते ही नहीं थे!... मास्टरजी से विनती करते थे कि हम पर इतना बड़ा जुल्म ना ढहाया जाये और हमें घर ना भेजा जाये!...हमें स्कूल में ही रहने दीजिए...छुट्टी हमें पसंद नहीं है!... तब स्कूल में पढाने के लिए मास्टरजी ही हुआ करते थे... मैडम का फैशन तो तब मार्किट में नहीं था! .... एक बात हम बताना भूल ही गए कि हमारी क्लास में हमारे समेत तीन लड़कियां और पच्चीस लडके ....जिन्हें विद्यार्थी कहतें है....हुआ करते थे! ..हाँ!..छुट्टी तो किसी को भी पसंद नहीं थी!




...तो हम और हमारे जैसे बहुसंख्य विद्यार्थी घर जाने के लिए राजी नहीं होते थे!... हम तो घर बैठकर होने वाली बोरियत से घबरा जाते थे; जब कि हमारे क्लास-मेट ' घर पर काम करना पडेगा...' की सोच से घबरा कर स्कूल में ही समय गुजारना पसंद करते थे!... कोई गलती से यह न समझ बैठे की हम बहुत ज्यादा पढाकू थे! बारिश के मौसम में, मास्टरजी को घर जाकर मास्टरनी( पत्नी) के हाथ के बने चटपटे पकौडे जो खाने होते थे!... मास्टरजी तो बादल देखकर ही छुट्टी डिक्लेर कर देते थे और सबसे पहले मास्टरजी ही स्कूल से बाहर निकलते थे!...उन्हें छुट्टियों से बड़ा ही लगाव था! 

स्कूल में एक और भी मास्टरजी थे...जो हेड-मास्टर  कहलातें थे!... वे छुट्टी पर ही रहते थे!...उनके दर्शन स्कूल में 26 जनवरी और 15 अगस्त वाले दिन ही होते थे... अन्यथा वे सरपंच होने के नाते, गांववालों में आपसी झगडे करवाने और फ़िर उन्हें निपटाने में लिप्त रहतें थे!... स्कूल में होने वाली धान्दली से उन्हें कोई लेना देना नहीं था!





...तो गाँव के स्कूल के वे सुनहरे दिन याद करके हम आज भी तरोताजा हो लेते है!... शहरों के अंग्रेजी पढाने वाले ,पब्लिक स्कूल वाले विद्यार्थियों की बुरी हालत आज हम देख ही रहे है!... बेचारे छुट्टी के दिन भी 'ट्यूशन' नाम की राक्षसनी के हाथ से बच नहीं सकतें!




.... वैसे छुट्टियों की कमी तो सरकार ने भी कभी होने नहीं दी!... जितनी छुट्टियाँ स्कूलों के लिए बहाल की जाती है, उतनी किसी और डिपार्टमेंट के लिए उपलब्ध होने का रेकोर्ड हमारे पास नहीं है!... अभी दिवाली गई, ये देखो ईद गई...ये दशहरा आया...ये राम जन्म..ये कृष्ण जन्म...ये माता की नवरात्री.. अब क्रिसमस और फ़िर नया साल!...बीच से शनिवार और रविवार भी तो है... अपरंपार छुट्टियाँ !... किसी को भली लगे या बुरी!...हाय रे छुट्टियाँ!



Sunday, 14 December 2008

तारे जमीं पर मेरी नज़र से

तारे जमीं पर... मेरी नज़र से !



हम सभी फिल्में देखतें है!... कोई ज्यादा , तो कोई कम!... देखने का नजरियाँ भी सभी का अलग अलग ही होता है!... तभी तो कोई फ़िल्म किसी एक व्यक्ति को अच्छी लगाती है ; तो दूसरे व्यक्ति को बोर लगती है; तो तीसरे व्यक्ति को सो सो लगती है!.... कुछ फिल्में ऐसी भी होती है जो बच्चों से लेकर बडो तक सभी को पसंद आती है!... ऐसी फिल्में 'सदाबहार ' फिल्में कहलाती है... बार बार देखने पर भी, एक बार और देखने के लिए मन ललचाता है!


ऐसी ही एक फ़िल्म ' तारे जमीं पर...' मैंने देखी! ...हालाकि यह फ़िल्म लगभग एक साल पहले रिलीज हुई है ...तो इसे अब पुरानी भी कह सकतें है... लेकिन मुझे इस फ़िल्म को देखने का मौका अब हाथ लगा!... वैसे मैं फिल्में कम देखती हूँ; लेकिन जब तक नई पेशकश गिनी जाती है तब तक ही देखती हूँ!... बाद में इंटरेस्ट कम हो जाता है!...खैर!


... तो मैंने 'तारे जमीं पर ...' देखी और मुझे लगा कि अगर यह फ़िल्म देखनी रह जाती तो मैं एक अच्छी और अलग किस्म की फ़िल्म देखने से वंचित रह जाती! ... इस फ़िल्म के बारे में मैंने अख़बार और पत्रिकाओं में बहुत कुछ पढा था!... टी.वी.पर बहुत कुछ सुना भी था... सभी ने इस फ़िल्म के बारे में जी भर कर प्रसंसनीय उदगार लिखे और कहे थे!...


... मैंने जब मौका मिला तो फ़िल्म अपनी नज़र से देखी.... इस फ़िल्म के बारे में पढ़ा और सुना हुआ सबकुछ पहले ही अपने दिमाग़ से बाहर निकाल दिया था!... मैंने पूरी फ़िल्म देखी!... और इस नतीजे पर पहुँची की फ़िल्म शिक्षाप्रद है!... असामान्य बुद्धि और चाल-चलन के बच्चो के साथ, माता-पिता और शिक्षकों को किस तरह से पेश आना चाहिए... यही इस फ़िल्म के माध्यम से बताया गया है!... यही सब विस्तार से अनेक लेखकों और पत्रकारों द्बारा फ़िल्म की समीक्षामें लिखा और कहा भी गया है!


अब मैंने एक अलग चीज महसूस की; और देखी कि.... इस फ़िल्म का बाल कलाकार दर्शिल याने कि फ़िल्म का हीरो ईशान अवस्थी, हम सभी के अदंर छिपा हुआ है!... क्या हम भी ईशान की तरह नहीं है?... मिटटी खोदते हुए मजदूर की शर्ट का टूटा हुआ बटन हमारा भी ध्यान खिंचता है!... पैडल रिक्शा-चालक के हाथ की फूली हुई नसे हमारा ध्यान खिंचती है.... भेल-पुरी वाला और बर्फ के गोले बनाने वाले तेजी से चल रहे हाथ हमें भी अच्छे लगते है!.... ऐसी बहुतसी चीजे है, जो हम ईशान की तरह ही उत्सुकता से ताकते रहते है!


.... आमिर खान निशाना साधने में फ़िर एक बार कामियाब हुए है....और इस फ़िल्म को हिट बनाने में यही नुस्खा सबसे ज्यादा काम आया है!... हम ईशान में अपनी छबि देखते है!... मैंने सही कहा या ग़लत?