हंसने वाले के साथ...सब हँसतें है!
...एक जमावड़ा था... किसी लड़की की एंगेजमेंट किसी लडके से होने जा रही थी... हम भी उस जमावड़े में आमंत्रित थे!....खाने-पीने के साथ बातों का दौर भी चल रहा था!... बात हंसने और रोने के बारे में चल पड़ी!...किसी भाईसाहब ने कहा..'अजी , हंसने वाले के साथ सब हंसते है..लेकिन रोने वाले के साथ कोई नहीं रोता!' ...भाई साहब का साथ देते हुए दूसरे भाई साहब और बहनजी ने 'हाँ जी!' ..'हाँ जी' ..कहना शुरू कर दिया! इस पर हमें क्रोध आया!...क्यों कि ऐसा कहते हुए उन भाई साहब ने हमारे कंधे पर अपना हाथ रखा दिया ! हमने उनका हाथ पकड़ कर हटाते हुए कहा..." ऐसा कुछ नहीं है...रोने वालों के साथ रोने वाले भी बहुतेरे होते है!"
इस पर भाई साहब अपनी बात पर अड़ गए ' रोने वालों के साथ कोई नहीं रोता!'
"...नहीं जी ऐसा थोड़े ही होता है?... आप रो कर तो देखिएं!..लोग आपके साथ रोना शुरू कर देंगे! ' हमने भाईसाहब की बात काटने के लिए ऐसा कहा!
" वैसे आप रोए कब थे... " हमने चुटकी ली!
' भला मैं क्यों रोने लगा?... मुझे तो रोना आता ही नहीं है .. मैं बस एक बार रोया था !" कहतें हुए भाई साहब ने फिर मेरे कंधे पर हाथ रखा...फिर मैंने उनका हाथ झटक दिया... लेकिन एकदम से भाई साहब चिल्लाएं.... "ओये!...मर गया रे !"... मैंने देख ही लिया की भाई साहब की भारी भरख़म श्रीमती ने उनका वही हाथ जोर से मरोड़ा था!
... अब सभी लोगों का ध्यान इस तरफ था... कि यहाँ क्या हुआ!
...भाई साहब... 'कुछ नहीं..युंही जरा... हे, हे, हे '... करने पर उतर आए!
" हाँ जी भाईसाहब आप रोएँ कब थे?" अब की बार मैंने फिर पूछा...
" जब मेरे गले में श्रीमती वरमाला डाल रही थी!..तब दहाड़े मार कर रोया था मैं!...लेकिन तब लोगों ने जोर जोर से हँसना शुरू किया था जी...रोया तो कोई नहीं था! " पत्नी की तरफ देखते हुए भाईसाहब बोले..इस समय पत्नी जरा दूर खड़ी थी!... नहीं तो फिर उनके चिल्लाने की आवाज दुगुनी रफ्तार से आती!
" भाई साहब रोने वाले के साथ रोने वालों को हम फिर कभी ढूंढेंगे.... अभी आप अपनी कोई ताजा कविता ही सुना दीजिए!".....भीड़ में से कोई बोला!
भाई साहब अपने आप बहुत उच्च कोटी का कवि समझतें है, यह मुझे मालूम था!... मैंने भी आँखे मटकाकर कहा ' सुनाइए न!' ....और भाई साहब की बांछे खिल गई!
..." सुनिए, सुनिए..मेरी बिलकुल ताजा कविता.... आप को अंदर तक हिला कर रख देगी ... कविता का शीर्षक है.....' सूनी सड़क पर...."
.....और वे अपनी रोत्तल आवाज में कविता सुनाने लग गए...उनकी पत्नी फ़ौरन वहां से दफा हो गई .... शायद पत्नी को भगाने के लिए वह हंमेशा यही नुस्खा इस्तेमाल करतें होंगे!
रफ्ता, रफ्ता...
एक साइकिल...
सड़क पर...
जाती हुई...
मेरी नज़रों से...
हुई ओझल...
क्यों कि मैं....
उस समय ...
jaa रहा था....
बिलकुल अकेला...
और पैदल...
सूनी सड़क पर...
मेरे सामने से...
तेज रफ़्तार...
लाल रंग की कार...
गुजर गई...
मुझे धक्का दे कर...
गिरा दिया...
सूनी सड़क पर....
मैं गिरा...
मैं उठा,
मैं खड़ा हुआ...
मैंने झाडे कपडे....
करता और क्या...
सूनी सड़क पर....
मुझे लगा...
जनम जनम से....
भिखारी हूँ मैं...
बुद्धू भी हूँ मैं...
वरना...
रेलवे-स्टेशन
और मंदिर छोड़कर...
कटोरा लिए हाथमें...
यहाँ क्यों भटकता...
सूनी सड़क पर...
वह साइकिल वाला...
कमबख्त...
फिर आया...
छिना कटोरा मेरा...
फिर हुआ नज़रों से ओझल...
अब मैं बैठा...
सिर पकड़ा...
जार, जार, रोया...
सूनी सड़क पर...
अब बिना कटोरे...
भिखारी!
कौन कहेगा मुझे...
कौन देगा भीख...
भूखा ही मर जाऊँगा...
राम तेरी माया...
अब समझ में आया.....
आंसू बहाता ,
जा रहा हूँ मैं...
सूनी सड़क पर....
...भाई साहब रोए जा रहे थे...शायद वह अपने आप को वही कविता वाला भिखारी ही समझ रहे थे!... कुछ लोग रोने में उनका साथ दे रहे थे!... माहौल गंभीर हो गया था... कि मैंने चुटकी ली....
" भाई साहब मैंने कहा था न कि रोने वाले के साथ भी लोग रोते है?"
...अब भाई साहब मेरी तरफ सरके...वे भिखारी के चोले से बाहर आ गए और फिर एक बार मेरे कंधे पर हाथ रखा!... मैंने फिर उनका हाथ झटक दिया...क्यों कि उनकी श्रीमती आँखे लाल किए बिलकुल सामने खड़ी थी!
...एक जमावड़ा था... किसी लड़की की एंगेजमेंट किसी लडके से होने जा रही थी... हम भी उस जमावड़े में आमंत्रित थे!....खाने-पीने के साथ बातों का दौर भी चल रहा था!... बात हंसने और रोने के बारे में चल पड़ी!...किसी भाईसाहब ने कहा..'अजी , हंसने वाले के साथ सब हंसते है..लेकिन रोने वाले के साथ कोई नहीं रोता!' ...भाई साहब का साथ देते हुए दूसरे भाई साहब और बहनजी ने 'हाँ जी!' ..'हाँ जी' ..कहना शुरू कर दिया! इस पर हमें क्रोध आया!...क्यों कि ऐसा कहते हुए उन भाई साहब ने हमारे कंधे पर अपना हाथ रखा दिया ! हमने उनका हाथ पकड़ कर हटाते हुए कहा..." ऐसा कुछ नहीं है...रोने वालों के साथ रोने वाले भी बहुतेरे होते है!"
इस पर भाई साहब अपनी बात पर अड़ गए ' रोने वालों के साथ कोई नहीं रोता!'
"...नहीं जी ऐसा थोड़े ही होता है?... आप रो कर तो देखिएं!..लोग आपके साथ रोना शुरू कर देंगे! ' हमने भाईसाहब की बात काटने के लिए ऐसा कहा!
" वैसे आप रोए कब थे... " हमने चुटकी ली!
' भला मैं क्यों रोने लगा?... मुझे तो रोना आता ही नहीं है .. मैं बस एक बार रोया था !" कहतें हुए भाई साहब ने फिर मेरे कंधे पर हाथ रखा...फिर मैंने उनका हाथ झटक दिया... लेकिन एकदम से भाई साहब चिल्लाएं.... "ओये!...मर गया रे !"... मैंने देख ही लिया की भाई साहब की भारी भरख़म श्रीमती ने उनका वही हाथ जोर से मरोड़ा था!
... अब सभी लोगों का ध्यान इस तरफ था... कि यहाँ क्या हुआ!
...भाई साहब... 'कुछ नहीं..युंही जरा... हे, हे, हे '... करने पर उतर आए!
" हाँ जी भाईसाहब आप रोएँ कब थे?" अब की बार मैंने फिर पूछा...
" जब मेरे गले में श्रीमती वरमाला डाल रही थी!..तब दहाड़े मार कर रोया था मैं!...लेकिन तब लोगों ने जोर जोर से हँसना शुरू किया था जी...रोया तो कोई नहीं था! " पत्नी की तरफ देखते हुए भाईसाहब बोले..इस समय पत्नी जरा दूर खड़ी थी!... नहीं तो फिर उनके चिल्लाने की आवाज दुगुनी रफ्तार से आती!
" भाई साहब रोने वाले के साथ रोने वालों को हम फिर कभी ढूंढेंगे.... अभी आप अपनी कोई ताजा कविता ही सुना दीजिए!".....भीड़ में से कोई बोला!
भाई साहब अपने आप बहुत उच्च कोटी का कवि समझतें है, यह मुझे मालूम था!... मैंने भी आँखे मटकाकर कहा ' सुनाइए न!' ....और भाई साहब की बांछे खिल गई!
..." सुनिए, सुनिए..मेरी बिलकुल ताजा कविता.... आप को अंदर तक हिला कर रख देगी ... कविता का शीर्षक है.....' सूनी सड़क पर...."
.....और वे अपनी रोत्तल आवाज में कविता सुनाने लग गए...उनकी पत्नी फ़ौरन वहां से दफा हो गई .... शायद पत्नी को भगाने के लिए वह हंमेशा यही नुस्खा इस्तेमाल करतें होंगे!
रफ्ता, रफ्ता...
एक साइकिल...
सड़क पर...
जाती हुई...
मेरी नज़रों से...
हुई ओझल...
क्यों कि मैं....
उस समय ...
jaa रहा था....
बिलकुल अकेला...
और पैदल...
सूनी सड़क पर...
मेरे सामने से...
तेज रफ़्तार...
लाल रंग की कार...
गुजर गई...
मुझे धक्का दे कर...
गिरा दिया...
सूनी सड़क पर....
मैं गिरा...
मैं उठा,
मैं खड़ा हुआ...
मैंने झाडे कपडे....
करता और क्या...
सूनी सड़क पर....
मुझे लगा...
जनम जनम से....
भिखारी हूँ मैं...
बुद्धू भी हूँ मैं...
वरना...
रेलवे-स्टेशन
और मंदिर छोड़कर...
कटोरा लिए हाथमें...
यहाँ क्यों भटकता...
सूनी सड़क पर...
वह साइकिल वाला...
कमबख्त...
फिर आया...
छिना कटोरा मेरा...
फिर हुआ नज़रों से ओझल...
अब मैं बैठा...
सिर पकड़ा...
जार, जार, रोया...
सूनी सड़क पर...
अब बिना कटोरे...
भिखारी!
कौन कहेगा मुझे...
कौन देगा भीख...
भूखा ही मर जाऊँगा...
राम तेरी माया...
अब समझ में आया.....
आंसू बहाता ,
जा रहा हूँ मैं...
सूनी सड़क पर....
...भाई साहब रोए जा रहे थे...शायद वह अपने आप को वही कविता वाला भिखारी ही समझ रहे थे!... कुछ लोग रोने में उनका साथ दे रहे थे!... माहौल गंभीर हो गया था... कि मैंने चुटकी ली....
" भाई साहब मैंने कहा था न कि रोने वाले के साथ भी लोग रोते है?"
...अब भाई साहब मेरी तरफ सरके...वे भिखारी के चोले से बाहर आ गए और फिर एक बार मेरे कंधे पर हाथ रखा!... मैंने फिर उनका हाथ झटक दिया...क्यों कि उनकी श्रीमती आँखे लाल किए बिलकुल सामने खड़ी थी!
10 comments:
अब भाई साहब को घर मै कोन बचायेगा???
भाई साहब घर में आज्ञाधारक पति है...सो बचे रहते है!... वैसे कविताएं भी उन्हे बचाने में अहम भूमिका निभाती है!...हे,हे..हे!
sundar kavita.
हाहा!! ईश्वर भाई साहब की रक्षा करे.... :)
कमाल हैं ये भाई साहिब भी कवि हैं ना। हा हा हा।
आपने सही कहा...हँसने वाले के साथ सब हँसते हैं...
majedar post..
aap ki tippani aur blog par aane ke liye bahut bhaut dhanywad..
बाकी सब तो ठीक है, डॉ साहिबा!
पर भाई साहब का हाथ बहुत चलता है.....!
हा हा हा....
vaah...........
अच्छा है ।
Post a Comment